भारत एक है

21 12 2008

सदियों से भारत एक ऐसा देश रहा है जिसने सभी का स्वागत किया है। फ़िर चाहे वो किसी भी धर्म या सम्प्रदाय का क्यों न हो। पूरे विश्व में इतनी सांस्कृतिक तथा धार्मिक विविधताओं वाला शायद भारत ही एक देश है। हाँ, अतीत में हमारे यहां आपसी मतभेद और झगडे़ रहे हैं। किसके नहीं होते? हर देश में ऐसा होता है। परंतु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अपने मतभेदों के बावजूद, जब बात राष्ट्रीयता की आती है, तब हम सब एक ऐसे अविभाजित समाज के रूप में सामने आते हैं, जिसे अपने देश से प्यार है।

साम्प्रदायिक सौहार्द्र के प्रतीक के रूप में पिछले कुछ अरसे में शायद अपनी तरह का एक अनोखा उदाहरण सामने आया है। कल गुजरात के एक हिन्दू मंदिर में दो मुस्लिम जोड़ों ने अपना निक़ाह पढ़वाया। यह हमारा उत्तर है, उन सभी लोगों के लिए जो गुजरात की जनता को अभी भी धर्मांध और हिंसक भीड़ समझते हैं।

टाईम्स ऑफ़ इंडिया के एक लेख से यहां सन्दर्भ ले रहा हूँ –

In perhaps the first-of-its-kind nikah solemnised before Lord Ram in the communally sensitive Gujarat, two Muslim couples tied the knot in a

Junagadh temple with a maulvi reciting Koranic verses in the backdrop of Ram dhun. Members of both communities joined the ceremony and dined together.
Abdul Sheikh (48), who works at Junagadh Civil Hospital approached Satyam Seva Mandal, a local NGO, seeking financial help for the weddings of his son Asif and daughter, Najma. "We were ready to help. But we told the family that the wedding ceremony has to take place in our building which houses a Ram mandir. They happily agreed," said Mansukh Vaja, a local activist.
"We saw this as an opportunity to set an example. I discussed the issue with my relatives and our maulavi saheb readily approved the idea," said Sheikh.

उक्त लेख यहां पर उपलब्ध है।





सपने

15 12 2008

आजकल संसार की जो स्थिति है, मैं उससे बहुत दु:खी हूँ।मेरी आँखों में आंसू आ जाते हैं जब मैं अपने बचपन के उन दिनों को याद करता हूँ जब हमें धर्म या सम्प्रदाय के बारे में कुछ नहीं पता था। तब जीवन का केवल एक ही ध्येय हुआ करता था – प्रसन्न रहना और अपने आस-पास के सभी लोगों को प्रसन्न रखना। तब से अब तक, चीजें काफ़ी बदल गई हैं। और दुर्भाग्यवश स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़्ती ही जा रही है। अपने व्यथित मन के विचारों को हिंदी/उर्दू की कुछ पंक्तियों के रूप में लिखने की मैंने चेष्टा की है।

मैं इसे यहां पर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस आशा में कि, शायद लोग न केवल मेरे, बल्कि मेरे जैसे  लाखों करोड़ों के मन के क्रन्दन को सुन सकेंगे।

हमें शान्ति चाहिए।





मराठी, हिन्दी और जबरन तकरार

7 09 2008

मेरा परिवार मूल रूप से उत्तर प्रदेश का रह्नने वाला था। मेरे दादाजी कई दशकों पहले मुम्बई आए थे और तब से हम यहीं के हो कर रह गये। अब मैं खुद मुम्बई का रहने वाला हूँ और मुम्बई शहर से (आम तौर पर कह सकते हैं कि पूरे महाराष्ट्र से) मुझे अतिशय प्रेम है। अब लगभग २ साल हो गये हैं मुझे मुम्बई से बाहर रह्ते हुए लेकिन, आज भी जब कभी मुम्बई या महाराष्ट्र के किसी भी हिस्से की बात होती है तो, मेरा मन अपनी कर्मभूमि के लिए मचल उठता है !

इस विवाद की शुरुआत सबसे पहले बालासाहेब ठाकरे ने की थी। हालांकि अब शिवसेना इस बात को खुले तौर पर स्वीकार नहीं करती कि वो हिन्दी का विरोध करते हैं। खै़र, वो पुरानी बात थी। राज ठाकरे ने अपनी राजनीति चलाने के लिये एक बार फ़िर वही मुद्दा उठाया और मराठी अस्मिता की ठेकेदारी शुरू कर दी। जब मामला थोड़ा शांत हो रहा था तब आज जया बच्चन ने एक गैर जिम्मेदराना बयान दे कर फ़िर से आग में घी डालने का काम किया है। हालांकि ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि बात उन्होंने मज़ाक में कही थी। लेकिन वो भी एक मंझी हुई राजनेता हैं। उन्हें कम से कम इतना सोचना चाहिए था कि राज ठाकरे जैसे मौकापरस्त लोगों को तिल का ताड़ बनाने की आदत होती है।

वैसे ज़ाती तौर पर मेरा मानना है कि जैसे शिवसेना या मनसे मराठी अस्मिता के ठेकेदार नहीं हैं, वैसे ही बच्चन परिवार या समाजवादी पार्टी हिन्दी भाषी लोगों के ठेकेदार नहीं हैं। समय समय पर मुम्बई वसियों ने इस बात को प्रमाणित किया है कि वे एक दूसरे की मान्यताओं का आदर करते हैं और सदा ही एक दूसरे की सहायता के लिए तत्पर रहते हैं। हमारी एकता को न तो राज ठाकरे तोड़ सकते हैं और न जया बच्चन या उनके राजनैतिक सहयोगी। मेरी ऐसे लोगों से प्रार्थना है कि आम लोगों को अपनी रोज़ाना की ज़रूरतों को पूरा करने में ही लगे रहने दें। समय समय पर गैर-ज़रूरी बयानबाज़ी कर के माहौल ख़राब न करें।

इसके साथ ही मैं एक और बात कहना चाहूँगा। मैं राज ठाकरे के हिंसक तरीकों समर्थन नहीं कर रहा लेकिन ये सोचने वाली बात है। यदि आप किसी जगह पर दसियों सालों से रह रहे हैं तो क्या आप को वहां के लोगों और वहां की मान्यतओं का सम्मान नहीं करना चाहिए? क्या आपकी नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि कम से कम वहां की भाषा का सम्मान करें? कम से कम मुझे लगता है कि ऐसा होना चाहिए। मैं अपने आप को मुम्बईकर तभी कह सकता हूँ जब मैं मुम्बई, मुम्बई के लोगों और महाराष्ट्र की अस्मिता का न सिर्फ़ सम्मान करूँ बल्कि उसे अपनाऊँ भी।

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